Bhakhoriyo Somvar Ki Katha
अम्बावती नगर में चारूदत्त नामक एक बराह्मण अपनी पत्नी के साथ रहता था।वह बहुत गरीब था।इसलिए भिक्शा माग कर अपनी गुजर बसर करता था।वह बराह्मण और उसकी पत्नी शिव भक्त थे और बहुत भक्ती भाव से रोज पूजा किया करते थे।आए दिन अतिथियों को आदर सहित भोजन कराया करते थे।दोनों पती पत्नी सत्यवादी थे।
उन दोनों की भक्ति देख कर भगवान साधू का वेश धारण कर उनके घर पंहुचे।साधु को घर आए देखकर चारुदत्त बहुत खुश हुआ।उसने साधु की खूब आवभगत की और अपने बाटॅ का भोजन साधू को कराया।साधूने भोजन करते हुए पूछा हे भूदेव आप दुःखी लगते हैं।क्या मैं आपकी कोई मदद कर सकता हूँ।साधू की बात सुन कर चारुदत्त की आखें भर आई।उसने विनम्र भाव से कहा महात्मा जी मैं पँडित हूँ ग्यानी हूँ परन्तु अन्नदाता मुझसे रूष्ट हैं।मैं भगवान शिव की भक्ति करता हूँ फिर भी शिव कृपा मुझ पर नहीं होती।
कृपा कर आप मुझे कोई उपाय बताएं जिससे मेरे कष्ट दूर हों तथा हम भूखे ना रहें।चारुदत्त की बात सुनकर साधु ने धैर्य बंधाते हुए कहा सुख दुःख तो जीवन के दो पहलु हैं ये दोनों हमेशा साथ साथ चलतेहैं।
इसलिए तुम दुःखी मत हो। पूर्व जन्मो का फल तो भुगतना पड़ता है।यह कहकर साधु एक पल के लिए मौन हो गए।थोड़ी देर बाद साधु बोले हे चारुदत्त तुम भाखौरियौ सोमवार का वरत करो।इस से तुम्हारे पुर्व जन्म के पाप तो नष्ट होगें ही था दुःख गरीबी भी नष्ट होगा।इस वरत से भगवान शंकर तुमसे खुश होंगे।साधु की बात सुनकर दम्पत्ती बहुत खश हुए और मन ही मन यह वरत करने का निश्चय कर साधु को आदर सहित विदा किया।जब श्रावण मास का पहला सोमवार आया तो दम्पत्ती ने यह वरत करना शुरु किया।इस वरत के कारण उन दोनों के सब कष्ट दर हो गए तथा चारुदत्त को राजश्रय मिला तथा राजपुरोहित हो गया।यह वरत साढे तीन माह तक लगातार किया जाता है।कार्तिक सुदी चतुर्दशी को इसका उध्यापन होता है।