Laxmi Ji Ki Katha
प्राचीन काल में एक यशस्वी राजा थे ! एक बार उनकी पत्नी दमयंती ने अपनी सेविका को गले में गाँठ लगा पीला डोरा बाँधे देखा तो रानी दमयंती ने उस डोरे के बारे में पूछ ही लिया तो उसने उत्तर दिया, यह मां लक्ष्मी का डोरा है !
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दमयंती ने पूछा इससे क्या होता है. सेविका ने कहा, इसके पहनने से घर में सुख सम्पत्ति आती है और पहले से हो तो और भी बढ जाती है1 रानी को अच्छा लगा. उसने भी एक डोरा ले कर 16 गांठे दे कर अपने गले में बाँध लिया.
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रात में राजा नल ने दमयंती से गले के पीले डोरे के बारे में पूछा तो रानी ने सारी बातें बता दीं, इस पर नल ने कहा, हमें किस बात की कमी है और उस डोरे को तोड कर फेंक दिया !
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कुछ देर बाद राजा को सपने में एक औरत दिखी जो कह रही थी- ” मैं जा रही हूँ. उसी समय एक दूसरी औरत भी वहां आ गयी बोली मैं आ रही हूँ. नल को यही सपना बारह दिन तक रोज आता रहा तो वह उदास रहने लगा.
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दमयंती ने पूछा कि उदास क्यों हैं तो राजा ने कहा, समझ में नहीं आता वे दोनों औरतें कौन हैं. अगली बार राजा ने उन दोनों का नाम पूछा तो पहली बोली मैं लक्ष्मी हूँ और दूसरी ने अपना नाम दरिद्रा बताया. जल्द ही राजा नल को पता चला कि पखवारे भर के भीतर उनका सब धन जाता रहा है.
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वे इतने गरीब हो गये कि खाने तक को न रहा. वे जंगल में कन्द मूल खाकर रहने लगे. एक दिन उनके पाँच बरस के बेटे को भूख लगी तो दमयंती ने नल से मालिन के यहाँ से छाछ माँगकर लाने को कहा. मालिन ने राजा को छाछ देने से मना कर दिया.
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एक दिन जंगल में बेटे को सांप ने डस लिया. वे पुत्ररत्न खो कर दुःखी थे कि राजा नहा कर धोती सुखा रहा था तभी तेज हवा धोती उडा ले गई. रानी ने अपनी आधी साड़ी फाड़ कर नल को दी. बाद में राजा खाने के दो तीतर मार लाया, रानी ने तीतर भूने तो भुने तीतर उड गये.
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वे भूखे प्यासे आगे बढे तो रास्ते में राजा के दोस्त का घर पडा. उसने दोनों को जिस कमरे में ठहराया था वहाँ रखे लोहे के औजार और सामान धरती में समा गए. चोरी का इल्जाम लगने के डर से वे वहां से भाग गये.
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आगे चलकर राजा की बहन का घर पडा. राजा की बहन ने पुराने महल में ठहराया और सोने के थाल में उन्हें खाना भेजा तो थाल मिट्टी की परात में बदल गया. परात को जमीन में गाडकर वे फिर भाग निकले.
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रास्ते में एक साहूकार का घर आया. साहूकार ने नल और दमयंती के ठहरने की व्यवस्था जिस हवेली में की वहाँ खूंटी पर हीरों का हार टंगा था. पास ही दीवार पर मोर का चित्र बना था. देखते ही देखते मोर हार को निगलने लगा. यह अचरज देखकर वे वहाँ से भी चोरी के डर से भाग चले
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दमयंती ने सलाह दी कि शहर की ओर भागने से बेहतर है जंगल में कुटिया बनाकर रहा जाये. वे जंगल में तो नहीं गये पर एक सूखे बगीचे में रहने लगे. दोनो बगीचे को सींचते और देख रेख करते.
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दोनों की मेहनत से वह बगीचा हरा भरा हो गया तो एक दिन बगीचे का मालिक वहाँ आया और खुश हो कर पूछा तुम दोनों कौन हो. नल और दमयंती ने कहा हम राहगीर हैं. नौकरी खोजते हैं. बाग़ के मालिक ने उन्हें अपने यहां नौकर रख लिया.
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एक दिन बाग की मालकिन ने सम्पदा देवी की कथा करवायी. सबको बुलवाया. दमयंती भी गयी थी उसने भी कथा सुनकर सम्पदा देवी का डोरा ले लिया. राजा ने रानी से फिर पूछा ये कैसा डोरा पहना है ?
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दमयंती बोली यह वही डोरा है जिसे आपने एक बार तोडकर फेंक दिया था. हमें इतनी विपत्तियाँ झेलनी पडी. सम्पदा देवी हम पर नाराज हो गयीं. दमयंती ने कहा, यदि सम्पदा माता सच्ची हैं तो हमारे दिन फिर से लौट आएगे.
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उसी रात नल ने सपना देखा. एक स्त्री कह रही हैं मैं जा रही हूँ, दूसरी स्त्री मैं आ रही हूँ. राजा के पूछने पर पहली औरत ने अपना नाम दरिद्रा तो दूसरी ने लक्ष्मी बताया. राजा ने लक्ष्मी से पूछा अब तो नहीं जाओगी.
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लक्ष्मी बोली यदि तुम्हारी पत्नी सम्पदा का डोरा लेकर कथा सुनती रहेगी तो कभी नही पर तुम डोरा तोड दोगे तो चली जाऊँगी. उधर बाग की मालकिन किसी रानी को हार देने जाती थी उस हार को दमयन्ती गूंथती थी.
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रानी को दमयंती का बनाया हार बहुत पसंद आया. रानी के पूछने पर बाग़ की मालकिन ने बताया कि उसकी नौकरानी ने बनाया है. रानी ने बाग की मालकिन से दोनों के नाम पूछने को कहा. उसने नाम पूछे तो पता चला कि वे नल दमयंती हैं. बाग का मालिक ने उन्हें आदर सहित कुछ धन दिया और उनसे क्षमा माँगने लगा.
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अब नौकरी न हो सकती थी, सो दोनों अपने राजमहल की तरफ चले. रास्ते में साहूकार का घर आया. यहाँ वे उसी कमरे में ठहरे तो देखा कि दीवार पर बना मोर नौलखा हार उगल रहा है. साहूकार ने यह चमत्कार देख राजा के पैर पकड लिये और खूब सारा धन भेंट किया.
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आगे चलने पर बहन के घर आया. नल उसी पुराने महल में ठहरा जहां मिट्टी की परात दबायी थी. वह जगह खोदी तो हीरे जड़ा थाल निकला. राजा ने बहन को बहुत सा धन भेंट में दे आगे चल दिया.
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इसके बाद नल दमयंती मित्र के घर पहुँचे और उसी कमरे में ठहरे जिसमें पहले रुके थे. मित्र के लोहे के औजार और सब सामान सही सलामत मिल गये. उसने उपहार दे विदा किया.
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आगे चलने पर उसकी धोती एक पेड़ पर उलझी हुई मिल गयी. तो राजकुमार जिसको सांप ने डस लिया था उसी के साथ खेलता हुआ मिल गया.
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अपने महलों में पहुचने पर दमयंती की सखियों ने मंगल गान गाया और नल का उसके मंत्रियों और अधिकारियों ने जी खोल कर स्वागत किया. संपदा जी (लक्ष्मी) कथा ने उनके बुरे दिन अच्छे दिनों में बदल दिये.
विशेष। ….. प्रचलित लोक कथाएं हमें लक्ष्मी एवं दरिद्रा के आने पर हमारे जीवन में आने वाले बदलाव की ओर संकेत करती है और त्रिगुणात्मक श्रष्टि के विभिन्न प्रभाव को दर्शाती है जिससे मानव तमोगुणी विचार ( काम, क्रोध , मद, लोभ एवं मोह ) को धारण ना करे ! इस कथा में पीला धागा एवं १६ गांठ को जो महत्व दिया गया है वो संभवतः हिन्दू मान्यताओं में धागे अनेक प्रकार से हमें अपने कर्तव्यों का ” स्मरण” करने हेतु प्रयोग होता है ! जैसे रक्षा बंधन , यज्ञोपवीत एवं कन्याओ को नवरात्रो में बांधते है ! परन्तु उस धागे को तोडना राजा के अहंकार ( अहंकार एक तामसिक वृत्ति है ) को दर्शाता है ! दरिद्रा भी तामसिक है अतः लक्ष्मी एवं दरिद्रा दोनों का स्वप्न में आने का तातपर्य स्पष्ट है की “घर से सतोगुण जा रहा है और तमोगुण आ रहा है !
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भवसागर से पार होने के लिये मनुष्य शरीर रूपी सुन्दर नौका मिल गई है। सतर्क रहो कहीं ऐसा न हो कि वासना की भँवर में पड़कर नौका डूब जाय।
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मानसिक मल या मन की मैल
जब मन विषयों में आसक्त रहता है तो उसे मानसिक मल कहते हैं। जब संसार की मोहमाया व विषयों से वैराग्य हो जाए तो उसे मन की निर्मलता कहते हैं।
मानसिक तीर्थ,,,
सत्यं तीर्थं क्षमा तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रह:।।
सर्वभूतदया तीर्थं तीर्थमार्जवमेव च।
दान तीर्थं दमस्तीर्थं संतोषस्तीर्थमेव च।।
ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं नियमस्तीर्थमुच्यते।
मन्त्राणां तु जपस्तीर्थं तीर्थं तु प्रियवादिता।।
ज्ञानं तीर्थं धृतिस्तीर्थमहिंसा तीर्थमेव च।
आत्मतीर्थं ध्यानतीर्थं पुनस्तीर्थं शिवस्मृति:।।
अर्थात्—सत्य तीर्थ है, क्षमा तीर्थ है, इन्द्रियनिग्रह तीर्थ है, सभी प्राणियों पर दया करना, सरलता, दान, मनोनिग्रह, संतोष, ब्रह्मचर्य, नियम, मन्त्रजप, मीठा बोलना, ज्ञान, धैर्य, अहिंसा, आत्मा में स्थित रहना, भगवान का ध्यान और भगवान शिव का स्मरण—ये सभी मानसिक तीर्थ कहलाते हैं।
शरीर और मन की शुद्धि, यज्ञ, तपस्या और शास्त्रों का ज्ञान ये सब-के-सब तीर्थ ही हैं। जिस मनुष्य ने अपने मन और इन्द्रियों को वश में कर लिया, वह जहां भी रहेगा, वही स्थान उसके लिए नैमिष्यारण, कुरुक्षेत्र, पुष्कर आदि तीर्थ बन जाएंगे।
अत: मनुष्य को ज्ञान की गंगा से अपने को पवित्र रखना चाहिए, ध्यान रूपी जल से राग-द्वेष रूपी मल को धो देना चाहिए और यदि वह सत्य, क्षमा, दया, दान, संतोष आदि मानस तीर्थों का सहारा ले ले तो जन्म-जन्मान्तर के पाप धुलकर परम गति को प्राप्त कर सकता है।
‘भगवान के प्रिय भक्त स्वयं ही तीर्थरूप होते हैं। उनके हृदय में भगवान के विराजमान होने से वे जहां भी विचरण करते हैं; वही महातीर्थ बन जाता है।
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” जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !”